क्या आप जानते हैं हमलोग भगवान् को भोग क्यूँ लगाते हैं ? जानिये इसकी कहानी
शास्त्रों में कहा गया है कि स्वयं भोजन करने से पहले भगवान को भोग लगाना चाहिए। इसका सिर्फ धार्मिक ही नहीं वैज्ञानिक आधार भी है। अगर आप क्रोध या खीझ अथवा उतावलेपन से भोजन करते हैं तो उसका प्रभाव नकारात्मक होता है। कई परिवारों में भोजन के पूर्व भगवान को भोग लगाने की परंपरा होती है। शास्त्रों में इस बात को धान-दोष (अन्न का कुप्रभाव) दूर करने के लिहाज से भी जरूरी बताया गया है। भाव शुद्धि के लिए भी यह जरूरी है। इसका उदाहरण एक जगदगुरु शंकराचार्य ने बहुत सरलता से समझाया है।
एक बार एक धार्मिक कार्यक्रम में जगत गुरु शंकराचार्य कांची कामकोटि जी से एक व्यक्ति ने प्रश्न किया कि हम भगवान को भोग क्यों लगाते हैं? हम जो कुछ भी भगवान को चढ़ाते हैं, उसमें से भगवान क्या खाते-पीते हैं? क्या हमारे चढ़ाए हुए पदार्थ के रूप रंग स्वाद या मात्रा में कोई परिवर्तन होता है?
यदि नहीं तो हम यह कर्म क्यों करते हैं, क्या यह अंधविश्वास नहीं है? यदि यह अंधविश्वास है तो हम भोग लगाने का दिखावा क्यों करें?
जगदगुरु शंकराचार्य जी ने शांति के साथ उस व्यक्ति का प्रश्न सुना और बहुत ही शांत चित्त से उन्होंने संबंधित व्यक्ति को उसके प्रश्न का उत्तर दिया। जगदगुरु ने कहा यह समझने की बात है कि जब हम प्रभु को भोग लगाते हैं तो वह उसमें से क्या ग्रहण करते हैं।
उन्होंने कहा, मान लीजिए कि आप लड्डू लेकर भगवान को भोग चढ़ाने मंदिर जा रहे हैं और रास्ते में आपका जानने वाला कोई मिलता है और पूछता है यह क्या है तब आप उसे बताते हैं कि यह लड्डू है। फिर वह पूछता है कि किसका है? तब आप कहते हैं कि यह मेरा है। फिर जब आप वही मिष्ठान्न प्रभु के श्री चरणों में रख कर उन्हें समर्पित कर देते हैं और उसे लेकर घर को चलते हैं, तब फिर आपको जानने वाला कोई दूसरा मिलता है और वह पूछता है कि यह क्या है? आप कहते हैं कि यह भगवान का प्रसाद है।
अब समझने वाली बात यह है कि लड्डू वही है। उसके रंग-रूप, स्वाद परिमाण में कोई अंतर नहीं पड़ता है तो प्रभु ने उसमें से क्या ग्रहण किया कि उसका नाम बदल गया।
वास्तव में प्रभु ने मनुष्य के ‘मम कार’ को हर लिया। यह मेरा है का जो भाव था, अहंकार था। प्रभु के चरणों में समर्पित करते ही उसका हरण हो गया। प्रभु को भोग लगाने से मनुष्य विनीत स्वभाव का बनता है शीलवान होता है। अहंकार रहित स्वच्छ और निर्मल चित्त मन का बनता है। साथ ही इसमें एक त्याग और दान की भावना भी जुड़ जाती है। आपका लड्डू आप स्वयं खाते हो या स्वजनों को खिलाते हो जबकि वही लड्डू जब प्रसाद कहलाता है तो आप ढूंढ-ढूंढकर उसे ज्यादा से ज्यादा लोगों को खिलाने और देने का प्रयास करते हो। इसलिए इसे अंधविश्वास कतई नहीं कहा सकता।