स्थानीय समाज के प्रबुद्ध नागरिकों द्वारा सावित्री बाई फुले की मनाई गई जयंती
स्थानीय समाज के प्रबुद्ध नागरिकों ने भरतीय पिछड़ा शोषित संगठन, दरभंगा के बैनर तले दरभंगा चिल्ड्रेन हॉस्पिटल परिसर, वीआईपी रोड, लहेरियासराय में सावित्रीबाई फुले और फ़ातिमा शेख की संयुक्त 194वीं जयंती मनायी गयी। इस अवसर पर उनके क्रांतिकारी और बहुमुखी सामाजिक अवदान की विस्तृत चर्चा की गयी। उनकी सोच की लहकती लौ को जलाये रखने में अपने-अपने हिस्से की भागीदारी निभाने का संकल्प लिया गया और उनके प्रति अपनी कृतज्ञता प्रदर्शित की गयी। कार्यक्रम की अध्यक्षता समाजिक कार्यकर्ता प्रकाश कुमार ज्योति ने की।
कार्यक्रम को सम्बोधित करते हुए विशिष्ट अतिथि शंकर प्रलामी ने दोनो विभूतियों के जीवन और अवदान पर विस्तार से प्रकाश डाला। सावित्रीबाई और फ़ातिमा शेख के तैलचित्र पर पुष्पांजलि से कार्यक्रम की शुरुआत हुई। आयोजक संगठन के प्रदेश अध्यक्ष श्री उमेश राय ने वर्तमान संदर्भ में माता सावित्री बाई के योगदान पर विस्तृत चर्चा की। वरिष्ठ समाजसेवी शिक्षाविद रामबुझावन ने अपने-अपने विचार रखे। अन्य सम्मानित/आमंत्रित नागरिक़ों ने अपनी उपस्थिति एवं उद्बोधन से कार्यक्रम को सार्थक बताया। वक्ताओं ने बताया कि सावित्रीबाई फुले को भारत की पहली महिला शिक्षक होने का गौरव प्राप्त है। उनकी शादी 9 वर्ष की कच्ची उम्र में हो चुकी थी।
17 वर्ष की किशोर वय में 01जनवरी 1848 में पहला बालिका विद्यालय स्थापित कर बच्चियों को पढ़ाने का क्रांतिकारी कदम उठाया था। अपने जीवनकाल में उन्होंने कुल 18 बालिका विद्यालय स्थापित किये । यह संख्या बाद में 150 तक पहुंच गयी। बच्चियों को पढ़ाने और विधवाओं को प्रश्रय देने के कारण उन पर समाज खासकर बच्चियों-स्त्रियों को पथभ्रष्ट करने के आरोप लगाकर विभिन्न तरीकों से प्रताड़ित किया गया। स्कूल जाने के रास्ते मे उनपर गन्दगी कीचड़ गोबर फेंके जाते थे। नतीजतन उन्हें अतिरिक्त साड़ी लेकर स्कूल जाना पड़ता था।
उन्होंने विधवाओं को दैनिक प्रताड़ना और किसी भी कारण से गर्भवती हुई विधवाओं को सामाजिक वहिष्कार और आत्महत्या से बचाने के लिए विधवाआश्रय-स्थल और ऐसे प्रसूत शिशुओं के लिए आश्रय-स्थल खोले। सैंकड़ों प्राण बचाये। अनगिन बच्चों को सहारा और ‘एक कल’ दिया। ऐसे ही एक बच्चे को उन्होंने गोद लिया और उसे डॉक्टर बनाया। यह बच्चा डॉ. यशवंत बना। उनका पूरा जीवन तो क्रांतिकारी चर्या में बीता ही और उनकी मौत देखिये प्लेग से संक्रमित एक गांव में प्लेग रोगियों की सेवा करते हुए ही उनकी और उनके पुत्र डॉ.यशवंत की अकाल मृत्यु भी हुई। शायद ही कोई दूसरी स्त्री मिले जिसे सावित्रीबाई के आसपास भी रखा जा सके!
इस संदर्भ में सावित्रीबाई फुले को कदम- कदम पर सहयोग करने वाले भाई-बहन उस्मान शेख और फातिमा शेख को भी पूरे सम्मान के साथ याद किया गया। हमे चाहिए कि हम अपने घरों के प्रवेश द्वार पर निश्चित तौर पर सावित्रीबाई फुले की एक तस्वीर टांगे ताकि घर के और हमारे यहां आने-जानेवाले प्रत्येक व्यक्ति को पता चले कि आधुनिक भारत को यहां तक पहुंचाने में सावित्रीबाई फुले जैसी योद्धाओं की क्या और कैसी भूमिका रही है। एक कृतज्ञ देश अपने इन्हीं संस्कारों से जीवित होने का अहसास कराता है! नतशिर नमन! वर्तमान दौर मे दोनो पुरखिनों को एक साथ याद करना बेहद जरुरी है ताकि लगभग 200 वर्ष पहले गंगा-जमुना का यह संदेश मुल्क के कोने-कोने तक पहुंचे और नफरत की आग फूंककर सामाजिक सौहार्द्र को भस्म करने की मुहिम चलाने वालों की मंशा ध्वस्त हो सके।