क्या है वैक्सीन का बूस्टर शॉट और क्यों जरूरी है?
भारत में कोरोना संक्रमण का आंकड़ा एक बार फिर तेजी ले चुका है, जिसे लेकर विशेषज्ञ दूसरी लहर की आशंका जता रहे हैं. यूरोपियन देशों में भी हालात कमोबेश इसी ओर इशारा कर रहे हैं. हालांकि वैक्सीन लगाई जा रही है लेकिन इसके बाद भी एंटीबॉडीज का नतीजा देखने में अभी समय लग सकता है. इस बीच ये भी माना जा रहा है कि कोरोना वैक्सीन के यही दो डोज काफी नहीं होंगे, बल्कि बूस्टर भी लगाना होगा.
लगभग सालभर के भीतर ही कोरोना वायरस के बारे में वैज्ञानिकों ने नई जानकारियां जुटाईं और यहां तक कि कई देश टीका तैयार कर चुके हैं. ये अपने-आप में उपलब्धि है क्योंकि इससे पहले किसी भी वायरस का टीका इतने कम समय में नहीं बना था. लेकिन अब भी विशेषज्ञ चिंता में हैं. बात असल में ये है कि वे इस टीके की समयावधि के बारे में नहीं जानते. उन्हें आशंका है कि जल्द ही इस टीके से बनी एंटीबॉडी खत्म हो सकती हैं. ऐसे में बूस्टर शॉट बनाए जाने की तैयारी हो रही है.
बूस्टर शॉट ठीक वैसा ही है, जैसे आपने कोई कोर्स कर लिया लेकि्न समय के साथ उसमें कई अपग्रेटेड चीजें आ गईं. तब अपनी जानकारी दुरुस्त रखने के लिए आपको भी वे जानकारियां जुटानी होती हैं. बूस्टर भी इसी फॉर्मूला पर काम करता है. फिलहाल दुनिया में ज्यादातर कोरोना वैक्सीन जो दी जा रही हैं, उनके दो डोज कुछ समय के अंतराल पर मिल रहे हैं. ये दोनों डोज मिलकर प्राइम डोज कहलाएंगे. इनके बाद भी अगर कोई डोज सालभर या उससे भी ज्यादा समय के बाद लगवाने को कहा जाए तो उसे बूस्टर कहा जाएगा. मिसाल के तौर पर बच्चों के लिए कई वैक्सीन्स में बूस्टर अनिवार्य होता है, ताकि एंटीबॉडी कमजोर न पड़े.
बूस्टर डोज एक खास तरीके पर काम करते हैं, जिसे इम्युनोलॉजिकल मैमोरी कहते हैं. हमारा इम्यून सिस्टम उस वैक्सीन को याद रखता है, जो शरीर को पहले दिया जा चुका है. ऐसे में तयशुदा समय के बाद वैक्सीन की छोटी खुराक यानी बूस्टर का लगना इम्यून सिस्टम को तुरंत सचेत करता है और वो ज्यादा बेहतर ढंग से प्रतिक्रिया करता है.
टीकाकरण की प्रक्रिया के दौरान साठ के दशक में विशेषज्ञ इस नतीजे पर पहुंचे कि एक ही बार में वैक्सीन की बड़ी खुराक डालने पर शरीर की रोग प्रतिरोधक क्षमता इस ढंग से प्रतिक्रिया नहीं करती है. वहीं खुराक को अगर छोटे-छोटे हिस्सों में कुछ-कुछ समय के बाद दिया जाए तो शरीर में ज्यादा बेहतर ढंग से एंटीबॉडी विकसित हो पाती है. ये वैसा ही है, जैसे एक बार में ज्यादा खा लेना बीमार कर सकता है, जबकि नियमित अंतराल पर थोड़ा-थोड़ा भोजन शरीर के लिए फायदेमंद होता है. तो बूस्टर इसी तरह से काम करता है.
अलग-अलग बीमारियों के लिए बूस्टर डोज अलग तरह से काम करता है. जैसे बच्चों की बीमारियों में, जैसे काली खांसी के लिए बूस्टर जल्दी लगते हैं. वहीं टिटनेस के लिए WHO कहता है कि इसका बूस्टर 10 सालों में लिया जाना चाहिए क्योंकि शरीर की प्रतिरोधक क्षमता घट चुकी होती है.
एक और स्थिति है, जिसमें बूस्टर जरूरी है. जैसे अगर वायरस समय के साथ म्यूटेट होने लगें यानी नया बदलाव पाकर वे ज्यादा घातक हो जाएं तो ऐसे में पुराने डोज से बनी एंटीबॉडी काम नहीं करती है. तब म्यूटेट हुए वायरस के मुताबिक पुराने फॉर्मूला में ही थोड़े बदलाव होते हैं और ये बूस्टर लेना जरूरी होता है. जैसे कि फ्लू का वायरस हर कुछ साल में म्यूटेशन की प्रक्रिया से गुजरता है. यही कारण है कि फ्लू के लिए बहुतुरे लोग बूस्टर शॉट लेते रहते हैं.
एक और टर्म भी है, जिसे हेट्रोलॉगस प्राइम बूस्टिंग कहा जाता है. इसके तहत एक वैक्सीन लेने के बाद बूस्टर में किसी दूसरे ब्रांड की वैक्सीन लेने पर एंटीबॉडी ज्यादा प्रभावी हो जाती हैं. साउथ चाइना मॉर्निंग पोस्ट में इस बारे में रिपोर्ट आई है.
हो सकता है कि बूस्टर में दूसरी वैक्सीन लेने पर इम्यून सिस्टम तेजी से प्रतिक्रिया देता हो लेकिन इसका अलग असर भी हो सकता है. फिलहाल इस बारे में शोध चल रहे हैं. मई 2020 में इबोला की बूस्टर वैक्सीन को पहली हेट्रोलॉगस वैक्सीन कहा जाता है. फिलहाल कोरोना वायरस को लेकर भी अलग ब्रांड की वैक्सीन लेने पर क्लिनिकल ट्रायल चल रहे हैं. जैसे किसी ने फाइजर वैक्सीन ली हो तो उसे एस्ट्राजेनेका का बूस्टर मिले.