लगातार कार्रवाई के बाद भी बस्तर क्यों नक्सलियों का गढ़ बना हुआ है?

छत्तीसगढ़ के बीजापुर में शनिवार को नक्सलियों के साथ हुई मुठभेड़ (Maoist violence in Chhattisgarh) में 22 जवान शहीद हो गए, जबकि कई जवान घायल हैं. अब भी जवाबी कार्रवाई चल रही है. इस बीच ये बात उठ रही है कि जहां देश के ज्यादातर नक्सल-प्रभावित राज्यों में शांति है, वहीं छत्तीसगढ़ में क्यों नक्सली हमला जारी है, जबकि लगभग 15 सालों से यहां इनके आतंक के खिलाफ कार्रवाई चल रही है.
कब- कब होते रहे हमले
साल 2010 से लेकर अब तक दंतेवाड़ा-सुकमा और बीजापुर के आसपास 175 से भी ज्यादा जवान माओवादी हमलों में शहीद हो चुके हैं, जबकि घायलों की तो कोई गिनती ही नहीं. इनके अलावा आम लोग भी हमलों की चपेट में आते रहे हैं. 6 अप्रैल 2010 का दिन शायद ही कोई भूल सके, जब सुकमा में सीआरपीएफ के 76 जवानों की नक्सल हमले में जान गई थी. इसके तुरंत बाद मई में दंतेवाड़ा से सुकमा जा रहे सुरक्षाबल के जवानों पर हमला हुआ था, जिसमें 36 जवान शहीद हुए थे. कुल मिलाकर सिलसिला लगातार चला आ रहा है. ताजा हमला इसमें एक कड़ी मात्र है.

मार्च से जुलाई के बीच हमले दिखते रहे
छत्तीसगढ़ में माओ हमलों पर गौर करें तो एक खास पैटर्न देखने में आता है. यहां मार्च से जुलाई के बीच ही लगभग सारे हमले होते रहे हैं. सूत्रों के हवाले से बताया गया कि ये वे महीने हैं, जिस दौरान नक्सली आमतौर पर आक्रामक अभियान चलाते हैं और उसकी प्रैक्टिस भी करते हैं. इस अभियान में सुरक्षाबलों के खिलाफ मानसून से पहले आक्रामक हमले करना भी शामिल होता है.
क्यों बस्तर में लगातार हमले होते रहे
इस राज्य में वैसे तो कई जिले नक्सलियों से प्रभावित हैं लेकिन बस्तर में उनकी पैठ काफी ज्यादा दिख रही है. इसकी कई वजहें हैं. जैसे एक वजह है यहां के घने और दूर-दूर तक फैले जंगल. ये नक्सलियों के लिए सुरक्षित ठिकाना हैं, ठीक वैसे ही जैसे किसी समय चंबल के बीहड़ डाकुओं के लिए माने जाते थे. यहां एक बार घुसने के बाद आबादी का ओर-छोर नहीं मिलता है. चूंकि नक्सली आमतौर पर स्थानीय लोगों में से ही होते हैं तो वे जंगल को अच्छी तरह जानते हैं, जबकि तैनात जवान इससे अनजान होते हैं. इसका सबसे ज्यादा फायदा वे उठा रहे हैं.

क्या कहते हैं अधिकारी
सुरक्षा से जुड़े हुए आला लोग नाम न बताने की शर्त पर ये भी कहते हैं कि ओडिशा और आंध्रप्रदेश में माओवादियों के खिलाफ कड़ी कार्रवाई हुई. इससे हुआ ये कि वहां के चरमपंथी अपने इलाकों से निकलकर बस्तर चले आए. हर जगह के नक्सली कथित तौर पर एक ही विचारधारा से आते हैं. ऐसे में सीमा से सटा राज्य छत्तीसगढ़ और उसमें भी बस्तर जिला उनके लिए सही पनाह साबित हुआ. वे सीमा पार करके यहां आते और कैडर में घुल-मिल जाते हैं. इससे हो ये रहा है कि दूसरे राज्यों के नक्सली भी यहां जमा हो चुके हैं और आतंक लगातार बढ़ रहा है.
सड़क और संचार नहीं
नक्सलियों के कारण एक तो बस्तर में सड़कें नहीं बन पा रही हैं और न ही संचार की सुविधा है. ऐसे में अगर जंगलों के बीच जवान फंस जाएं तो न तो उनके बाहर निकलने का रास्ता होता है और न ही अपनी स्थिति से वे आला अधिकारियों को समय रहते अवगत करा पाते हैं. ये भी एक तरह से नक्सलियों की जीत होती है. वे टूटी-फूटी सड़कों या जंगलों में भूमिगत बमों का जाल बिछा जवानों को ट्रैप करते आए हैं.

पुलिस के बाद सेंट्रल फोर्स क्यों नहीं?
छत्तीसगढ़ में गहराती समस्या के पीछे कथित तौर पर स्थानीय पुलिस की झिझक भी शामिल है. यहां की पुलिस माओवाद को खत्म करने में आगे आने से झिझकती लगती है. आंध्रप्रदेश या ओडिसा या फिर पश्चिम बंगाल को लें, तो वहां पर पहले स्थानीय पुलिस ने जानकारियां जमा कीं और फिर जवानों को इससे जोड़ा गया. इससे काम आसान हो सकता है क्योंकि स्थानीय लोगों के जरिए खुफिया जानकारी पुलिस तक ज्यादा आसानी से पहुंच पाती है और फिर सेंट्रल सुरक्षा टीमों का भीतर पहुंचना अपेक्षाकृत सरल होगा लेकिन छत्तीसगढ़ में ये भी नहीं दिख रहा. वहां डिस्ट्रिक्ट रिजर्व फोर्स की बजाए लगातार सीआरपीएफ को ये काम दिया जा रहा है और वे शहीद हो रहे हैं.
हालांकि एक बड़ी वजह लगातार बस्तर में संचार सुविधाओं, सड़कों और अस्पतालों की कमी मानी जा रही है. पश्चिम बंगाल, जहां से नक्सलवाद की शुरुआत हुई, वहां भी आतंक प्रभावित इलाकों में सड़कों से लेकर संचार चुस्त-दुरुस्त कर दिया गया. इससे जवानों को कार्रवाई में काफी सुविधा हुई. बता दें कि नक्सली अक्सर स्थानीय लोगों में से होते हैं और उनकी खुफिया कार्रवाई की जानकारी कहीं न कहीं से स्थानीय लोगों तक पहुंच जाती है. ऐसे में अगर स्थानीय लोग पुलिस को सहयोग देना भी चाहें तो संचार सुविधाएं न होने के कारण समय पर ऐसा मुमकिन नहीं हो पाता है.
